23 अगस्त 2023 को जब Chandrayaan-3 ने चांद के दक्षिणी ध्रुव के पास सॉफ्ट-लैंडिंग की, भारत ने अंतरिक्ष मानचित्र पर एक ठोस निशान बना दिया। रूस का लूना-25 वहीं फिसल चुका था, अमेरिका और चीन इस इलाके को लेकर रणनीति बना रहे थे, और जापान ने बाद में SLIM से पिन-पॉइंट लैंडिंग दिखा दी। इस बीच भारत ने कम बजट, भरोसेमंद इंजीनियरिंग और साफ लक्ष्य के दम पर काम कर दिखाया।
अब असली सवाल—एक साल में हाथ क्या लगा? सबसे पहले, रोवर प्रज्ञान के LIBS इंस्ट्रूमेंट ने सतह पर सल्फर की मौजूदगी की पुष्टि की। एल्यूमीनियम, कैल्शियम, लोहे जैसे तत्त्वों का संकेत मिला, जो जियोलॉजी और संसाधन मानचित्रण के लिए अहम कड़ी देते हैं। चांद के इस हिस्से में पानी की बर्फ के संकेत पहले से थे, लेकिन सतह रसायन की यह साफ झलक योजना बनाने में मदद करती है।
दूसरा, विक्रम लैंडर पर लगे ChaSTE ने तापमान प्रोफाइल नापा—ऊपर धूप तीखी, कुछ सेंटीमीटर नीचे तापमान तेजी से गिरता हुआ। इसका मतलब, रेजोलिथ (धूल-भूसा) की थर्मल प्रॉपर्टीज़ अलग हैं और उपकरणों की डिजाइन में इसे सीधे जोड़ा जा सकता है। इसी तरह RAMBHA-LP ने सतह के पास प्लाज़्मा के बारे में शुरुआती डेटा दिया, जो चांद के वेदर और चार्जिंग इफेक्ट्स को समझने में काम आता है।
तीसरा, ILSA सिस्मोमीटर ने लैंडर और आसपास की गतिविधियों के कंपन रिकॉर्ड किए। ये रिकॉर्डिंग्स चंद्र-पर्पटी की प्रकृति पर रोशनी डालती हैं—रोवर की चाल से लेकर सम्भावित सूक्ष्म घटनाओं तक। यह डेटा भविष्य की ‘ड्रिलिंग’ और संरचनात्मक डिजाइनों को वास्तविकता के करीब लाता है।
और हाँ, विक्रम ने एक छोटी ‘हॉप’ भी की—इंजन चालू कर कुछ दूरी तक उछला और फिर सुरक्षित उतरा। क्यों मायने रखता है? क्योंकि चांद पर सटीक री-लोकेशन भविष्य के सैंपल-रिटर्न, कार्गो शिफ्ट या रेस्क्यू जैसे कामों का ट्रायल रूम है। रात पड़ने के बाद विक्रम-प्रज्ञान को ‘जगाने’ की कोशिशें हुईं, मगर तापमान और बैटरी सीमाएं हकीकत याद दिलाती रहीं—लूनर नाइट कठोर है और सिस्टम डिज़ाइन में मार्जिन चाहिए।
दक्षिणी ध्रुव पर इतनी भागदौड़ क्यों? यहाँ स्थायी छाया वाले क्रेटर्स हैं, जहां पानी की बर्फ टिक सकती है। बर्फ सिर्फ पीने का पानी नहीं—हाइड्रोजन-ऑक्सीजन ईंधन, ऑक्सीजन सप्लाई और लो-ग्रैविटी लॉजिस्टिक्स का आधार बन सकती है। यानी विज्ञान के साथ-साथ भविष्य की ‘लूनर इकॉनमी’ की जड़ें यहीं हैं।
चंद्रयान-3 के बाद इसरो ने रफ्तार बरकरार रखी। आदित्य-L1 जनवरी 2024 में L1 बिंदु की कक्षा में दाखिल हुआ और सौर हवाओं, कोरोनल घटनाओं और स्पेस वेदर के अवलोकन शुरू किए। सौर गतिविधि का रियल-टाइम साइंस न सिर्फ अकादमिक है—सैटेलाइट ऑपरेशन, पावर ग्रिड और एविएशन सुरक्षा तक इसका असर जाता है।
इसी बीच एक्स-रे पोलरिमेट्री सैटेलाइट (XPoSat) ने उच्च-ऊर्जा ब्रह्मांड को नए नजरिये से देखने का रास्ता खोला। ये मिशन दिखाते हैं कि भारत अब ‘वन-ऑफ’ नहीं, बल्कि मिशन कैडेंस बनाने की दिशा में है—नियमित, सुनियोजित और डेटा-ड्रिवन।
मानव अंतरिक्ष उड़ान—गगनयान—इसके लिए 2023 में क्रू एस्केप सिस्टम का टेस्ट उड़ान स्तर पर सफल रहा। एबॉर्ट केसेज़ में क्रू मॉड्यूल को सुरक्षित निकालना सबसे बड़ी शर्त होती है। आगे बिना-मानव उड़ानें, सिस्टम क्वालिफिकेशन और अंततः क्रू मिशन में कई तकनीकी इम्तहान बाकी हैं, लेकिन दिशा साफ है: सुरक्षा पहले, दिखावे बाद में।
नीति मोर्चे पर भी चीजें बदलीं। 2023 की भारतीय अंतरिक्ष नीति ने निजी क्षेत्र के लिए रास्ता खोला और 2024 में एफडीआई नियमों में ढील ने सैटेलाइट, लॉन्च-व्हीकल और सबसिस्टम में पूंजी लाने के विकल्प बढ़ाए। नतीजा? स्काईरूट से लेकर अग्निकुल तक, स्टार्टअप्स टेस्टिंग, इंजनों की 3डी प्रिंटिंग और छोटे रॉकेटों पर हाथ आजमा रहे हैं। इन-स्पेस और एनएसआईएल जैसे संस्थागत पुल निजी-सरकारी तालमेल को प्रक्रियात्मक सहारा दे रहे हैं।
वैज्ञानिक सहयोग भी बढ़ रहा है। जापान के साथ LUPEX मिशन चांद के ध्रुव पर पानी की पड़ताल को और गहराई देगा—लंबी दूरी वाले रोवर, बेहतर ड्रिलिंग और संसाधन मैपिंग के साथ। वहीं, नासा-इसरो का NISAR पृथ्वी अवलोकन में गेम-चेंजर हो सकता है—ग्लेशियर, जंगल, खेती, आपदा—सब पर हाई-रेज़, रिपीट कवरेज।
लेकिन चुनौतियां आसान नहीं। स्पेस मैन्युफैक्चरिंग की सप्लाई चेन भारत में अभी जकड़ी हुई है—उच्च-शुद्धता सामग्री, रेड-हार्ड इलेक्ट्रॉनिक्स, सटीक सेंसर—ये सब स्केल और क्वालिटी मांगते हैं। टैलेंट रिटेंशन और डीप-टेक में जोखिम पूंजी भी बाधा हैं। ऊपर से स्पेस डेब्रिस और रेडियो-फ्रीक्वेंसी मैनेजमेंट जैसे ‘अनदेखे’ मोर्चे हैं, जहां सिचुएशनल अवेयरनेस और नियामक तालमेल जरूरी है। इसरो का ‘नेत्र’ जैसे प्रोग्राम और अंतरराष्ट्रीय डेटा-शेयरिंग यहां सुरक्षा जाल बनाते हैं, पर निवेश और मानक दोनों चाहिए।
वापस चांद पर—डेटा अब सबसे बड़ा पूंजी है। थर्मल, सिस्मिक और रसायन विज्ञान का कच्चा माल विश्वविद्यालयों, स्टार्टअप्स और इंडस्ट्री को मिलता है, तो एल्गोरिदम से लेकर हार्डवेयर तक, नई परतें खुलती हैं। छात्रों के लिए भी मौका है—रोवर सिमुलेशन, डस्ट मिटिगेशन, पॉवर मैनेजमेंट, AI-आधारित नेविगेशन—ये सारे प्रोजेक्ट अब किताबों से आगे, असली मिशनों के साथ जोड़े जा सकते हैं।
तो तस्वीर क्या कहती है? चंद्रयान-3 ने भरोसा दिया, आदित्य-L1 ने कैडेंस दिखाया, और गगनयान अगला बड़ा इम्तहान है। अगर नीति स्थिर रही, सप्लाई चेन पर ध्यान गया और प्राइवेट-एकेडमिक गठजोड़ मजबूत हुआ, तो भारत सिर्फ मिशन नहीं, एक टिकाऊ स्पेस इकोसिस्टम बना सकता है—जहां लूनर से लेकर लो-अर्थ ऑर्बिट और डीप स्पेस तक, हर कक्षा में अपनी जगह पक्की हो।
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