जब हम रुपया कमजोरी, भारत की मूल मुद्रा के मूल्य में निरंतर गिरावट. Also known as रुपये का अवमूल्यन, यह पैटर्न विदेशी मुद्रा बाजार, महँगाई और नीति‑निर्णयों से जुड़ा होता है। रुपया कमजोरी को समझना आज के आर्थिक माहौल में ज़रूरी है, क्योंकि यह सीधे आपके जेब में परता है।
रुपया कमजोरी कई ताकतों से जुड़ी है। सबसे पहला विदेशी मुद्रा बाजार, वित्तीय सिस्टम जहाँ विभिन्न देशों की करंसी का लेन‑देना होता है में अमेरिकी डॉलर की माँग बढ़ती है, तो रुपये की कीमत नीचे आती है। दूसरा, भारतीय रिज़र्व बैंक, भारत का केंद्रीय बैंक जो मुद्रा नीति बनाता है अक्सर ब्याज दरों को घटाकर या विदेशी आरक्षित को खर्च करके बाजार को स्थिर करने की कोशिश करता है, पर इनके कदम कभी‑कभी प्रभावी नहीं होते। तीसरा महत्वपूर्ण तत्व महँगाई, सामान और सेवाओं की कीमतों में सामान्य वृद्धि है; जब महँगाई बढ़ती है, डॉलर‑रुपया दर में उछाल आता है और रुपये और कमजोर होते हैं। ये तीनों तत्व एक‑दूसरे को प्रभावित करके लगातार "रुपया कमजोरी" की स्थिति बनाते हैं।
उदाहरण के तौर पर, तेल की कीमतों में उछाल और अंतरराष्ट्रीय ब्याज दरों में वृद्धि अक्सर डॉलर को सशक्त बनाती है, जिससे भारतीय आयात‑व्यापार पर दबाव बढ़ता है। साथ ही, भारतीय कंपनियों के बड़े‑पैमाने पर विदेशी ऋण भी डॉलर‑रुपया दर में घातक बदलाव ला सकता है। इस तरह के कारणों का मिलजुला असर बाजार में निरंतर उतार‑चढ़ाव पैदा करता है।
जब रुपये कमजोर होते हैं, तो सीधे‑से‑सीधे हमारे दैनिक खर्चों पर असर पड़ता है। अमूल ने 700 से अधिक प्रोडक्ट की कीमत घटाकर उपभोक्ता को राहत दिलाई, लेकिन इससे भारत में दूध‑दूध उत्पादों की कीमतों का स्थिर रहना आमतौर पर परिवर्तनशील विदेशी कीमतों का प्रतिबिंब है। इसी तरह, बिहार पुलिस भर्ती या बीपीएल क्रिकेट मैचों की टिकटों की कीमतें भी आर्थिक माहौल से जुड़ी होती हैं; अगर रुपये की कीमत गिरती है, तो विदेशी निवेशकों का भरोसा कम हो जाता है और इन क्षेत्रों में राजस्व प्रभावित हो सकता है। अभी हाल ही में, अमेरिका के मौद्रिक नीति में बदलाव और तेल की कीमतों में वृद्धि ने भारत में महँगाई को धकेला है, जिससे किराने‑किराना, ईंधन और यात्रा खर्च बढ़े हैं। यही कारण है कि लोग विदेश में भेजे गए रेमिटेंस की कीमतें कम महसूस करने लगे हैं, और आर्थिक योजना बनाते समय विदेशी मुद्रा जोखिम को ध्यान में रखना पड़ता है।
रुपया कमजोरी को सीमित करने के लिए RBI कई उपकरण इस्तेमाल करती है। सबसे पहले, खुले बाजार संचालन (OMOs) के जरिए सरकार या निजी सेक्टर को डॉलर फेड करने की कोशिश की जाती है। दूसरा, रेपो दर को बढ़ाकर घरेलू निवेश को आकर्षित किया जाता है, जिससे विदेशी पूँजी का प्रवाह बढ़ता है और रुपये को सहारा मिलता है। तीसरा, विदेशी मुद्रा स्वैप और फॉरवर्ड मार्केट में भागीदारी से भविष्य में डॉलर की कीमत पर नियंत्रण पाया जा सकता है। साथ ही, सरकारी बांडों की जारीशुदा मात्रा को नियंत्रित करके बाजार में तरलता को संतुलित किया जाता है। इन उपायों के साथ, बजट में आय‑व्यय का संतुलन, निर्यात‑आयात में सुधार और निर्माताओं को प्रोत्साहन देना भी जरूरी है। जब निर्यात बढ़ता है और आयात घटता है, तो प्राकृतिक रूप से विदेशी मुद्रा का इनफ्लो बढ़ता है, जिससे रीपोर्ट (रुपया) को सॉफ़्ट लेंडिंग मिलती है।
उपरोक्त बिंदुओं को समझने के बाद, आप अब बेहतर तरीके से यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कौन‑से आर्थिक संकेतक सीधे रुपया कमजोरी को प्रभावित करेंगे। नीचे आप देखेंगे कई लेख जो इस विषय के विभिन्न पहलुओं को कवर करते हैं – चाहे वह RBI की नई नीति हो, महँगाई के आँकड़े हों या दैनिक खर्चों पर असर। ये सामग्रियाँ आपको एक व्यापक दृश्य देती हैं, जिससे आप सूचित फैसले ले सकते हैं और अफोर्डेबल विकल्प चुन सकते हैं। आइए, अब इस पेज के नीचे दी गई कहानियों में डुबकी लगाएँ और देखें कि आज के आर्थिक माहौल में "रुपया कमजोरी" कैसे आकार ले रही है।
शेयर मार्केट ने 25 सितंबर को पाँचवीं लगातार गिरावट दर्ज की, सेंसेक्स 556 अंक गिरा और निफ्टी 24,900 के अहम स्तर से नीचे गिरा। इस गिरावट के पीछे विदेशी संस्थागत निवेशकों का भारी आउटफ्लो, रुपये की दर में निरंतर गिरावट, अमेरिकी टैरिफ की चिंता और सोना‑चांदी की रिकॉर्ड ऊँचाई शामिल हैं। बाजार में वॉल्यूम‑स्लाइसिंग, RBI की मुद्रा हस्तक्षेप और SEBI के प्रतिबंध भी आगे के जलवे को रोकने की कोशिश कर रहे हैं।
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